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मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी

मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी

Mirza Ghalib shayari in Hindi भावनाओं के सार को खूबसूरती से दर्शाती है। उनकी मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी दिल को छू जाती है, जिससे पाठक भावनाओं की तीव्रता से जुड़ जाते हैं। चाहे वह अनकही भावनाओं के बारे में हो या भावुक बयानों के बारे में, 2 line Mirza Ghalib shayari प्रेरणा और आराम का स्रोत बनी हुई है। ये शायरी मिर्ज़ा ग़ालिब छंद न केवल प्रेम व्यक्त करते हैं बल्कि दो आत्माओं के बीच भावनात्मक बंधन का भी जश्न मनाते हैं।

नवीनतम मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी हिंदी
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
(कवि : मिर्ज़ा ग़ालिब)

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है

मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है

ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है

शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है

सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है

हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

हाँ भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है

जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है

मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
(कवि : मिर्ज़ा ग़ालिब)

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक

दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक

ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र
सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक

हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक

परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता'लीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक

यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होते तक

ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक

नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब
(कवि : मिर्ज़ा ग़ालिब)

नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब
शीशा-ए-मय सर्व-ए-सब्ज़-ए-जू-ए-बार-ए-नग़्मा है

हम-नशीं मत कह कि बरहम कर न बज़्म-ए-ऐश-ए-दोस्त
वाँ तो मेरे नाले को भी ए'तिबार-ए-नग़्मा है

निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की
(कवि : मिर्ज़ा ग़ालिब)

निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की
मबादा ख़ंदा-ए-दंदाँ-नुमा हो सुब्ह महशर की

रग-ए-लैला को ख़ाक-ए-दश्त-ए-मजनूँ रेशगी बख़्शे
अगर बोवे बजा-ए-दाना दहक़ाँ नोक निश्तर की

पर-ए-परवाना शायद बादबान-ए-कश्ती-ए-मय था
हुई मज्लिस की गर्मी से रवानी दौर-ए-साग़र की

करूँ बे-दाद-ए-ज़ौक़-ए-पर-फ़िशानी अर्ज़ क्या क़ुदरत
कि ताक़त उड़ गई उड़ने से पहले मेरे शहपर की

कहाँ तक रोऊँ उस के खे़मे के पीछे क़यामत है
मिरी क़िस्मत में या-रब क्या न थी दीवार पत्थर की

ब-जुज़ दीवानगी होता न अंजाम-ए-ख़ुद-आराई
अगर पैदा न करता आइना ज़ंजीर जौहर की

ग़ुरूर-ए-लुत्फ़-ए-साक़ी नश्शा-ए-बे-बाकी-ए-मस्ताँ
नम-ए-दामान-ए-इस्याँ है तरावत मौज-ए-कौसर की

मिरा दिल माँगते हैं आरियत अहल-ए-हवस शायद
ये जाना चाहते हैं आज दावत में समुंदर की

'असद' जुज़ आब-ए-बख़्शीदन ज़े-दरिया ख़िज़्र को क्या था
डुबोता चश्मा-ए-हैवाँ में गर कश्ती सिकंदर की

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