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आज लब-ए-गुहर-फ़िशाँ आप ने वा नहीं किया

(कवि : जौन एलिया)
आज लब-ए-गुहर-फ़िशाँ आप ने वा नहीं किया
तज़्किरा-ए-ख़जिस्ता-ए-आब-ओ-हवा नहीं किया

कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई
तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया

जाने तिरी नहीं के साथ कितने ही जब्र थे कि थे
मैं ने तिरे लिहाज़ में तेरा कहा नहीं किया

मुझ को ये होश ही न था तू मिरे बाज़ुओं में है
या'नी तुझे अभी तलक मैं ने रिहा नहीं किया

तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया

हाँ वो निगाह-ए-नाज़ भी अब नहीं माजरा-तलब
हम ने भी अब की फ़स्ल में शोर बपा नहीं किया

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अ'र्ज़-ए-अलम ब-तर्ज़-ए-तमाशा भी चाहिए अ'र्ज़-ए-अलम ब-तर्ज़-ए-तमाशा भी चाहिए
दुनिया को हाल ही नहीं हुलिया भी चाहिए
ऐ दिल किसी भी तरह मुझे दस्तियाब कर
जितना भी चाहिए उसे जैसा भी चाहिए
दुख ऐसा चाहिए कि मुसलसल रहे मुझे
और उस के साथ साथ अनोखा भी चाहिए
इक ज़ख़्म मुझ को चाहिए मेरे मिज़ाज का
या'नी हरा भी चाहिए गहरा भी चाहिए
इक ऐसा वस्फ़ चाहिए जो सिर्फ़ मुझ में हो
और उस में फिर मुझे यद-ए-तूला भी चाहिए
रब्ब-ए-सुख़न मुझे तिरी यकताई की क़सम
अब कोई सुन के बोलने वाला भी चाहिए
क्या है जो हो गया हूँ मैं थोड़ा बहुत ख़राब
थोड़ा बहुत ख़राब तो होना भी चाहिए
हँसने को सिर्फ़ होंट ही काफ़ी नहीं रहे
'जव्वाद-शैख़' अब तो कलेजा भी चाहिए
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
इक खेल है औरंग-ए-सुलैमाँ मिरे नज़दीक
इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मिरे आगे
जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मिरे आगे
होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे
सच कहते हो ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा हूँ न क्यूँ हूँ
बैठा है बुत-ए-आइना-सीमा मिरे आगे
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मिरे आगे
नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क से गुज़रा
क्यूँकर कहूँ लो नाम न उन का मिरे आगे
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे
ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर नहीं जाते
आई शब-ए-हिज्राँ की तमन्ना मिरे आगे
है मौजज़न इक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ काश यही हो
आता है अभी देखिए क्या क्या मिरे आगे
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे
हम-पेशा ओ हम-मशरब ओ हमराज़ है मेरा
'ग़ालिब' को बुरा क्यूँ कहो अच्छा मिरे आगे
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम
ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम
वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम
सुना दें इस्मत-ए-मरियम का क़िस्सा
पर अब इस बाब को वा क्यों करें हम
ज़ुलेख़ा-ए-अज़ीज़ाँ बात ये है
भला घाटे का सौदा क्यों करें हम
हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम
किया था अह्द जब लम्हों में हम ने
तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम
उठा कर क्यों न फेंकें सारी चीज़ें
फ़क़त कमरों में टहला क्यों करें हम
जो इक नस्ल-ए-फ़रोमाया को पहुँचे
वो सरमाया इकट्ठा क्यों करें हम
नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी
तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम
बरहना हैं सर-ए-बाज़ार तो क्या
भला अंधों से पर्दा क्यों करें हम
हैं बाशिंदे उसी बस्ती के हम भी
सो ख़ुद पर भी भरोसा क्यों करें हम
चबा लें क्यों न ख़ुद ही अपना ढाँचा
तुम्हें रातिब मुहय्या क्यों करें हम
पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें
ज़मीं का बोझ हल्का क्यों करें हम
ये बस्ती है मुसलमानों की बस्ती
यहाँ कार-ए-मसीहा क्यूँ करें हम