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ऐ कातिब-ए-तक़दीर ये तक़दीर में लिख दे

(कवि : फ़रहत नदीम हुमायूँ)
ऐ कातिब-ए-तक़दीर ये तक़दीर में लिख दे
बस उस की मोहब्बत मिरी जागीर में लिख दे

दे ऐसा जुनूँ जैसा दिया क़ैस को तू ने
मुझ को भी इसी हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में लिख दे

पाने का उसे ख़्वाब जो देखा है हमेशा
वो ख़्वाब ही बस ख़्वाब की ताबीर में लिख दे

दिल ऐसा मकाँ है जो अगर टूट गया तो
लग जाएँगी सदियाँ नई तामीर में लिख दे

मिलना है अगर ख़ुद से तो फिर देर न करना
खो जाने का डर होता है ताख़ीर में लिख दे

सच्चाई मिरा जुर्म है और कार-ए-वफ़ा भी
मुंसिफ़ है तो ये भी मिरी ताज़ीर में लिख दे

लिख दे कि मैं 'ग़ालिब' का मुक़ल्लिद हूँ ग़ज़ल में
फिर नाम मिरा मो'तक़िद-ए-'मीर' में लिख दे

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