अ'र्ज़-ए-अलम ब-तर्ज़-ए-तमाशा भी चाहिए
(कवि : जव्वाद शैख़)
अ'र्ज़-ए-अलम ब-तर्ज़-ए-तमाशा भी चाहिए
दुनिया को हाल ही नहीं हुलिया भी चाहिए
ऐ दिल किसी भी तरह मुझे दस्तियाब कर
जितना भी चाहिए उसे जैसा भी चाहिए
दुख ऐसा चाहिए कि मुसलसल रहे मुझे
और उस के साथ साथ अनोखा भी चाहिए
इक ज़ख़्म मुझ को चाहिए मेरे मिज़ाज का
या'नी हरा भी चाहिए गहरा भी चाहिए
इक ऐसा वस्फ़ चाहिए जो सिर्फ़ मुझ में हो
और उस में फिर मुझे यद-ए-तूला भी चाहिए
रब्ब-ए-सुख़न मुझे तिरी यकताई की क़सम
अब कोई सुन के बोलने वाला भी चाहिए
क्या है जो हो गया हूँ मैं थोड़ा बहुत ख़राब
थोड़ा बहुत ख़राब तो होना भी चाहिए
हँसने को सिर्फ़ होंट ही काफ़ी नहीं रहे
'जव्वाद-शैख़' अब तो कलेजा भी चाहिए