अज़ीज़-तर मुझे रखता है वो रग-ए-जाँ से
(कवि : TAHIR SHAHEER)
अज़ीज़-तर मुझे रखता है वो रग-ए-जाँ से
ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से
वो माँ के कहने पे कुछ रो'ब मुझ पे रखता है
यही है वज्ह मुझे चूमते झिझकता है
वो आश्ना मिरे हर कर्ब से रहे हर दम
जो खुल के रो नहीं पाता मगर सिसकता है
जुड़ी है उस की हर इक हाँ फ़क़त मिरी हाँ से
ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से
हर एक दर्द वो चुप-चाप ख़ुद पे सहता है
तमाम उम्र वो अपनों से कट के रहता है
वो लौटता है कहीं रात देर को दिन भर
वजूद उस का पसीने में ढल के बहता है
गिले हैं फिर भी मुझे ऐसे चाक-दामाँ से
ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से
पुराना सूट पहनता है कम वो खाता है
मगर खिलौने मिरे सब ख़रीद लाता है
वो मुझ को सोए हुए देखता है जी भर के
न जाने सोच के क्या क्या वो मुस्कुराता है
मिरे बग़ैर हैं सब ख़्वाब उस के वीराँ से
ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से