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बद-क़िस्मती को ये भी गवारा न हो सका

(कवि : शकेब जलाली)
बद-क़िस्मती को ये भी गवारा न हो सका
हम जिस पे मर मिटे वो हमारा न हो सका

रह तो गई फ़रेब-ए-मसीहा की आबरू
हर चंद ग़म के मारों का चारा न हो सका

ख़ुश हूँ कि बात शोरिश-ए-तूफ़ाँ की रह गई
अच्छा हुआ नसीब किनारा न हो सका

बे-चारगी पे चारागरी की हैं तोहमतें
अच्छा किसी से इश्क़ का मारा न हो सका

कुछ इश्क़ ऐसी बख़्श गया बे-नियाज़ियाँ
दिल को किसी का लुत्फ़ गवारा न हो सका

फ़र्त-ए-ख़ुशी में आँख से आँसू निकल पड़े
जब उन का इल्तिफ़ात गवारा न हो सका

उल्टी तो थी नक़ाब किसी ने मगर 'शकेब'
दा'वों के बावजूद नज़ारा न हो सका

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