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बोहत रोए गिलाय मिल के बिचेरने से जरा पहल

बोहत रोए गिलाय मिल के बिचेरने से जरा पहल
ये कैसा ख्वाब से जगे बिचेरने से जरा पहल

वो मुझ को जीत के खुश था, में अपनी हार पे नाज़ान
बैरे खुश फेहम लम्हे थे बिचेरने से जरा पहले

कभी मंजिल नज़र में थी, कभी रास्ते हमारे था
अचानक खो गए सारे बिचेरने से जरा पहले

नजने कैसा गम था वो के हम को याद नहीं आया
ट्राई कस्मान ट्रे वाडे बिचेर्नय से जरा पहल

ज़मीन सुन थी, फलक चुप था, से किस से इल्तिजा करता
बोहत बे चारगी में थे बिचेरने से जरा पहल

खुदा जाने वो क्या रुत थी, नाजाने कोन्सा मौसम
भला हम याद क्या रख्ते बिचेरने से जरा पहले

नकीब अब आस्मा से भी मदद मांगे से क्या मांगेंगी
हुए सब बैंड दरवाजा बिचेरने से जरा पहल

(कवि : )
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