चल मान लिया साहब-ए-किरदार नहीं हूँ
(कवि : ख़ालिद ख़्वाज़ा)
चल मान लिया साहब-ए-किरदार नहीं हूँ
पर तेरी तरह हाज़िर-ए-दरबार नहीं हूँ
दुश्मन है मुसाफ़िर तो उसे साफ़ बता दो
दीवार हूँ मैं साया-ए-दीवार नहीं हूँ
अतराफ़ में हर चीज़ का इदराक है मुझ को
ख़्वाबों में घिरा दीदा-ए-बेदार नहीं हूँ
ख़ामोश ही रहना है मिरे वास्ते बेहतर
मैं आप का पैराया-ए-इज़हार नहीं हूँ
अब तो हदफ़-ए-संग-ए-मलामत न बनाओ
अब तो मैं सर-ए-कूचा-ए-दिलदार नहीं हूँ
दिल तोड़ने वाले को ख़बर हो कि अभी मैं
सर-ता-ब-क़दम इक दिल-ए-बीमार नहीं हूँ