चुल्लू-भर पानी में जाके डूब मर

(कवि : मोहम्मद कमाल अज़हर)
चुल्लू-भर पानी में जाके डूब मर
कुछ न कुछ ग़ैरत ही खा के डूब मर

साफ़ पानी तो यहाँ मिलता नहीं
अब किसी नाले में जाके डूब मर

शाइरी तो तुझ से हो सकती नहीं
दूसरों के शेर गा के डूब मर

बहती गँगा से है तेरी दोस्ती
मैं तो कहता हूँ नहा के डूब मर

ये भी है कार-ए-जवाँ-मर्दां मियाँ
खिल-खिला के हँस-हँसा के डूब मर

उम्र-भर तू ने नहीं खाया हलाल
ओ-निकम्मे ज़हर खा के डूब मर

ये बुराई एक ही दम ख़त्म हो
साथ अपने आश्ना के डूब मर

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पोस्ट-मैन उस बुत का ख़त लाता नहीं पोस्ट-मैन उस बुत का ख़त लाता नहीं
और जो लाता है पढ़ा जाता नहीं
आशिक़ी से क्यूँ हम इस्तीफ़ा न दें
होटलों का बिल दिया जाता नहीं
शैख़-जी मोटर पे हज को जाइए
अहद-ए-नौ में ऊँट काम आता नहीं
बोसा लें उस सर्व-क़द का किस तरह
तार पर हम से चढ़ा जाता नहीं
आशिक़ों पर ज़ुल्म करना छोड़ दें
क्यूँ-बे क़ासिद जा के समझाता नहीं
रात दिन फ़रमाइशें ज़ेवर की हैं
हम से अब आशिक़ रहा जाता नहीं
जल गई सिगरेट से दाढ़ी शैख़ की
ये मगर फैशन से बाज़ आता नहीं
फ़रबही का तंज़ क्यूँ मुश्ताक़ पर
तेरी चक्की से तो पिसवाता नहीं
फ़ीस पहले जब तलक रखवा न ले
डॉक्टर अपने भी घर जाता नहीं
बैकरी में नौकरी करनी पड़ी
वो सिवाए केक कुछ खाता नहीं
तेरी फ़ुर्क़त में बहुत फ़ाक़े कटे
आ कि अब भूका रहा जाता नहीं
कब से है मेहमान तू ऐ हिज्र-ए-यार
भाई मेरे घर से क्यूँ जाता नहीं
ओ सितम-गर रोकना मोटर ज़रा
मेरे ख़च्चर से चला जाता नहीं
लॉन्ड्री खोली थी उस के इश्क़ में
पर वो कपड़े हम से धुलवाता नहीं
हज़रत-ए-इब्न-ए-बतूता की ग़ज़ल
ज़िद के मारे वो सनम गाता नहीं
जल्वा-ए-दरबार-ए-देहली सर में शौक़ का सौदा देखा
देहली को हम ने भी जा देखा
जो कुछ देखा अच्छा देखा
क्या बतलाएँ क्या क्या देखा
जमुना-जी के पाट को देखा
अच्छे सुथरे घाट को देखा
सब से ऊँचे लाट को देखा
हज़रत 'डिऊक-कनॉट' को देखा
पलटन और रिसाले देखे
गोरे देखे काले देखे
संगीनें और भाले देखे
बैंड बजाने वाले देखे
ख़ेमों का इक जंगल देखा
उस जंगल में मंगल देखा
ब्रह्मा और वरंगल देखा
इज़्ज़त ख़्वाहों का दंगल देखा
सड़कें थीं हर कम्प से जारी
पानी था हर पम्प से जारी
नूर की मौजें लैम्प से जारी
तेज़ी थी हर जम्प से जारी
डाली में नारंगी देखी
महफ़िल में सारंगी देखी
बैरंगी बारंगी देखी
दहर की रंगा-रंगी देखी
अच्छे-अच्छों को भटका देखा
भीड़ में खाते झटका देखा
मुँह को अगरचे लटका देखा
दिल दरबार से अटका देखा
हाथी देखे भारी-भरकम
उन का चलना कम कम थम थम
ज़र्रीं झूलें नूर का आलम
मीलों तक वो चम-चम चम-चम
पुर था पहलू-ए-मस्जिद-ए-जामे
रौशनियाँ थीं हर-सू लामे
कोई नहीं था किसी का सामेअ'
सब के सब थे दीद के तामे
सुर्ख़ी सड़क पर कुटती देखी
साँस भी भीड़ में घुटती देखी
आतिश-बाज़ी छुटती देखी
लुत्फ़ की दौलत लुटती देखी
चौकी इक चाै-लख्खी देखी
ख़ूब ही चक्खी-पख्खी देखी
हर-सू ने'मत रक्खी देखी
शहद और दूध की मक्खी देखी
एक का हिस्सा मन्न-ओ-सल्वा
एक का हिस्सा थोड़ा हल्वा
एक का हिस्सा भीड़ और बलवा
मेरा हिस्सा दूर का जल्वा
अवज बरीश राजा देखा
परतव तख़्त-ओ-ताज का देखा
रंग-ए-ज़माना आज का देखा
रुख़ कर्ज़न महराज का देखा
पहुँचे फाँद के सात समुंदर
तहत में उन के बीसों बंदर
हिकमत-ओ-दानिश उन के अंदर
अपनी जगह हर एक सिकंदर
औज-ए-बख़्त-ए-मुलाक़ी उन का
चर्ख़-ए-हफ़्त-तबाक़ी उन का
महफ़िल उन की साक़ी उन का
आँखें मेरी बाक़ी उन का
हम तो उन के ख़ैर-तलब हैं
हम क्या ऐसे ही सब के सब हैं
उन के राज के उम्दा ढब हैं
सब सामान-ए-ऐश-ओ-तरब हैं
एग्ज़ीबीशन की शान अनोखी
हर शय उम्दा हर शय चोखी
अक़्लीदस की नापी जोखी
मन भर सोने की लागत सोखी
जशन-ए-अज़ीम इस साल हुआ है
शाही फोर्ट में बाल हुआ है
रौशन हर इक हॉल हुआ है
क़िस्सा-ए-माज़ी हाल हुआ है
है मशहूर-ए-कूचा-ओ-बर्ज़न
बॉल में नाचें लेडी-कर्ज़न
ताइर-ए-होश थे सब के लरज़न
रश्क से देख रही थी हर ज़न
हॉल में चमकीं आ के यका-यक
ज़र्रीं थी पोशाक झका-झक
महव था उन का औज-ए-समा तक
चर्ख़ पे ज़ोहरा उन की थी गाहक
गो रक़्क़ासा-ए-औज-ए-फ़लक थी
उस में कहाँ ये नोक-पलक थी
इन्द्र की महफ़िल की झलक थी
बज़्म-ए-इशरत सुब्ह तलक थी
की है ये बंदिश ज़ेहन-ए-रसा ने
कोई माने ख़्वाह न माने
सुनते हैं हम तो ये अफ़्साने
जिस ने देखा हो वो जाने
ऑनलाइन आशिक़ नेट ईजाद हुआ हिज्र के मारों के लिए
सर्च इंजन है बड़ी चीज़ कुँवारों के लिए
जिस को सदमा शब-ए-तन्हाई के अय्याम का है
ऐसे आशिक़ के लिए नेट बहुत काम का है
नेट फ़रहाद को शीरीं से मिला देता है
इश्क़ इंसान को गूगल पे बिठा देता है
काम मक्तूब का माउस से लिया जाता है
आह-ए-सोज़ाँ को भी अपलोड किया जाता है
टेक्स्ट में लोग मोहब्बत की ख़ता भेजते हैं
घर बताते नहीं ऑफ़िस का पता भेजते हैं
आशिक़ों का ये नया तौर नया टाइप है
पहले चिलमन हुआ करती थी अब इस्काइप है
इश्क़ कहते हैं जिसे इक नया समझौता है
पहले दिल मिलते थे अब नाम क्लिक होता है
दिल का पैग़ाम जब ईमेल से मिल जाता है
मेल हर चौक पे फ़ीमेल से मिल जाता है
इश्क़ का नाम फ़क़त आह-ओ-फ़ुग़ाँ था पहले
डाक-ख़ाने में ये आराम कहाँ था पहले
आई-डी जब से मिली है मुझे हम-साई की
अच्छी लगती है तवालत शब-ए-तन्हाई की
नेट पे लोग जो नव्वे से पलस होते हैं
बैठे रहते हैं वो टस होते हैं न मस होते हैं
फेसबुक कूचा-ए-जानाँ से है मिलती-जुलती
हर हसीना यहाँ मिल जाएगी हिलती-जुलती
ये मोबाइल किसी आशिक़ ने बनाया होगा
उस को महबूब के अब्बा ने सताया होगा
टेक्स्ट जब आशिक़-ए-बर्क़ी का अटक जाता है
तालिब-ए-शौक़ तो सूली पे लटक जाता है
ऑनलाइन तिरे आशिक़ का यही तौर सही
तू नहीं और सही और नहीं और सही