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दर्द आ के बढ़ा दो दिल का तुम ये काम तुम्हें क्या मुश्किल है

(कवि : वहशत रज़ा अली कलकत्वी)
दर्द आ के बढ़ा दो दिल का तुम ये काम तुम्हें क्या मुश्किल है
बीमार बनाना आसाँ है हर-चंद मुदावा मुश्किल है

इल्ज़ाम न देंगे हम तुम को तस्कीन में कोई की न कमी
वादा तो वफ़ा का तुम ने किया क्या कीजिए ईफ़ा मुश्किल है

दिल तोड़ दिया तुम ने मेरा अब जोड़ चुके तुम टूटे को
वो काम निहायत आसाँ था ये काम बला का मुश्किल है

आग़ाज़ से ज़ाहिर होता है अंजाम जो होने वाला है
अंदाज़-ए-ज़माना कहता है पूरी हो तमन्ना मुश्किल है

मौक़ूफ़ करो अब फ़िक्र-ए-सुख़न 'वहशत' न करो अब ज़िक्र-ए-सुख़न
जो काम कि बे-हासिल ठहरा दिल उस में लगाना मुश्किल है

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