दश्त की ख़ाक भी छानी है
(कवि : विकास शर्मा राज़)
दश्त की ख़ाक भी छानी है
घर सी कहाँ वीरानी है
ऐसी प्यास और ऐसा सब्र
दरिया पानी पानी है
कश्ती वाले हैं मायूस
घुटनों घुटनों पानी है
कोई ये भी सोचेगा
कैसे आग बुझानी है
हम ने चख कर देख लिया
दुनिया खारा पानी है
एक बरस और बीत गया
कब तक ख़ाक उड़ानी है