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द-ल-क-सुकून-रूह-क-आर-म-आ-

(कवि : जिगर मुरादाबादी)
दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया

जब कोई ज़िक्र-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आ गया
बे-इख़्तियार लब पे तिरा नाम आ गया

ग़म में भी है सुरूर वो हंगाम आ गया
शायद कि दौर-ए-बादा-ए-गुलफ़ाम आ गया

दीवानगी हो अक़्ल हो उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक़्त पे जो काम आ गया

दिल के मुआमलात में नासेह शिकस्त क्या
सौ बार हुस्न पर भी ये इल्ज़ाम आ गया

सय्याद शादमाँ है मगर ये तो सोच ले
मैं आ गया कि साया तह-ए-दाम आ गया

दिल को न पूछ मारका-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ में
क्या जानिए ग़रीब कहाँ काम आ गया

ये क्या मक़ाम-ए-इश्क़ है ज़ालिम कि इन दिनों
अक्सर तिरे बग़ैर भी आराम आ गया

अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें 'जिगर'
अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया

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