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होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी

(कवि : नासिर काज़मी)
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबी'अत कभी कभी

ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िंदगी में ये राहत कभी कभी

तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-आफ़रीं
दिल बन गया है दोस्त की ख़ल्वत कभी कभी

जोश-ए-जुनूँ में दर्द की तुग़्यानियों के साथ
अश्कों में ढल गई तिरी सूरत कभी कभी

तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमइन न था
गुज़री है मुझ पे ये भी क़यामत कभी कभी

कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त कभी कभी

ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी कभी

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नवीनतम टूटे हुए दिल हिंदी शायरी
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है
शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हाँ भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
गाहे गाहे बस अब यही हो क्या गाहे गाहे बस अब यही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत ख़ुशी हो क्या
मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या
याद हैं अब भी अपने ख़्वाब तुम्हें
मुझ से मिल कर उदास भी हो क्या
बस मुझे यूँही इक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या
अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या
क्या कहा इश्क़ जावेदानी है!
आख़िरी बार मिल रही हो क्या
हाँ फ़ज़ा याँ की सोई सोई सी है
तो बहुत तेज़ रौशनी हो क्या
मेरे सब तंज़ बे-असर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या
दिल में अब सोज़-ए-इंतिज़ार नहीं
शम-ए-उम्मीद बुझ गई हो क्या
इस समुंदर पे तिश्ना-काम हूँ मैं
बान तुम अब भी बह रही हो क्या