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इक त्रा हिजर दाईमी है मुझे

(कवि : Tehzeeb Hafi)
इक त्रा हिजर दाईमी है मुझे
वर्ना हर चीज़ अर्ज़ी है मुझे

ऐक साया मारे तकूब में
ऐक आवाज़ ढूंढती है मुझे

मेरी आंखें पे दो मुकद्दस हाथी
ये अंधेरा भी रोशनी है मुझे

में सुखन में होन इस जग के जहान
सांस लेना भी शायरी है मुझे

परिंदों से बोलना सीख में
जोड़ी से खामशी मिली है मुझे

में उसे कब का भूल भूल चूका
जिंदगी है के रो रही है मुझे

में के कागज की एक कश्ती माननीय
पहली बरिश ही आखिरी है मुझे

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मैं जो रोता हूँ तो कहते हो कि ऐसा न करो मैं जो रोता हूँ तो कहते हो कि ऐसा न करो
तुम अगर मेरी जगह हो तो भला क्या न करो
अब तो ऐ दिल हवस-ए-साग़र-ओ-मीना न करो
छोड़ भी दो ये तक़ाज़ा ये तक़ाज़ा न करो
दिल पे ऐ दोस्त क़यामत सी गुज़र जाती है
तुम निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ से देखा न करो
फिर भी आँखें उन्हें हर बात बता देती हैं
दिल तो कहता है किसी बात का चर्चा न करो
अब मिरा दर्द मिरी जान हुआ जाता है
ऐ मिरे चारागरो अब मुझे अच्छा न करो
ये सर-ए-बज़्म मिरी सम्त इशारे कैसे
मैं तमाशा तो नहीं मेरा तमाशा न करो
मिल ही जाती है कभी यास में तस्कीन मुझे
ऐ उमीदो मुझे ऐसे में तो छेड़ा न करो
उस ने 'शहज़ाद' तिरी बात को ठुकरा ही दिया
मैं न कहता था कि इज़हार-ए-तमन्ना न करो