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कभी जमीन से कभी आस्मा से उल्झ हैं

कभी जमीन से कभी आस्मा से उल्झ हैं
कभी मकान से कभी ला मकान से उल्झे हैं

सुलभ रहे थे जो धागे मेरी वफाओं के
त्रि जाफों के बस इक बयान से उल्जे हैं

अभी ये फैसला होना है... क्या क्या जाए
अभी तो इश्क के सूद ओ ज़यान से उल्जे हैं

अजब हमारा तज़बज़ुब है तेरी फुरकत में
कभी याक़ीन से कभी हम गुमा से उल्झे हैं

तुझे मनाना भी चाहा .. मन नहीं
के हम तो अपने ही तरज बयान से उल्झा हैं

खाता हुई के ट्रे शहर में वफ़ा बंटे
हुआ यही के हम अपनी जुबा से उल्झा हैं

नकीब ज़हर जो उतरा रागों में फुरकत का
के चाह कुर्ब में हम बड़गुमा से उल्झा हैं

(कवि : )
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