ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ
(कवि : ज़ेब ग़ौरी)
ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ
जंगल जंगल सन्नाटा सफ़्फ़ाक हुआ
ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला
मैं भी धोका खा कर कुछ चालाक हुआ
मेरी ही परछाईं दर ओ दीवार प है
सुब्ह हुई नैरंग तमाशा ख़ाक हुआ
कैसा दिल का चराग़ कहाँ का दिल का चराग़
तेज़ हवाओं में शो'ला ख़ाशाक हुआ
फूल की पत्ती पत्ती ख़ाक पे बिखरी है
रँग उड़ा उड़ते उड़ते अफ़्लाक हुआ
हर दम दिल की शाख़ लरज़ती रहती थी
ज़र्द हवा लहराई क़िस्सा पाक हुआ
अब उस की तलवार मिरी गर्दन होगी
कब का ख़ाली 'ज़ेब' मिरा फ़ितराक हुआ