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कोई परी हो अगर हम-कनार होली में

(कवि : कल्ब-ए-हुसैन नादिर)
कोई परी हो अगर हम-कनार होली में
तो अब की साल हो दूनी बहार होली में

किया है वा'दा तो फिर बज़्म-ए-रक़्स में आना
न कीजियो मुझे तुम शर्मसार होली में

सफ़ेद पैरहन अब तो उतार दे अल्लाह
बसंती कपड़े हों ऐ गुल-एज़ार होली में

हमारे घर में उतारेंगे राह अगर भूले
हैं मस्त डोली के उन के कहार होली में

मुझे जो क़ुमक़ुमा मारा तो कर दिया बिस्मिल
अजीब रंग से खेले शिकार होली में

ये रंग पाश हुए हैं वो आज ऐ 'नादिर'
है फ़र्श-ए-बज़्म-ए-तरब लाला-ज़ार होली में

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साक़ी है न मय है न दफ़-ओ-चंग है होली साक़ी है न मय है न दफ़-ओ-चंग है होली
क्या हाल है इमसाल ये क्या रंग है होली
आई है जो फ़ुर्क़त में मिरा ख़ून करेगी
ये भी तिरे आने का कोई ढंग है होली
हम ख़ाक उड़ाते हैं धोलेंडी है यहाँ पर
हम तक नहीं आती कभी क्या लंग है होली
सौ बार जलाता हूँ मैं इक आह से दम में
आ कर मिरे वीराने में क्या तंग है होली
निकला मह-ए-नख़शब कि गिरा चाह में यूसुफ़
या हौज़ के अंदर मह-ए-गुल-रंग है होली
पिचकारी अगर ख़ामा है तो रंग सियाही
रंगीनी-ए-मज़मूँ से मिरे दंग है होली
हर बुत एवज़-ए-क़ुमक़ुमा दिल माँग रहा है
इस साल की वल्लाह कि बे-रंग है होली
ऐ 'मेहर' तिरे गिर्द हैं मह-रू किए तस्वीर
फ़ानूस-ए-ख़याली है कि अर्ज़ंग है होली