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मरहला रात का जब आएगा

(कवि : क़तील शिफ़ाई)
मरहला रात का जब आएगा
जिस्म साए को तरस जाएगा

चल पड़ी रस्म जो कज-फ़हमी की
बात क्या फिर कोई कर पाएगा

सच से कतराए अगर लोग यहाँ
लफ़्ज़ मफ़्हूम से कतराएगा

ए'तिबार उस का हमेशा करना
वो तो झूटी भी क़सम खाएगा

तू न होगी तो फिर ऐ शाम-ए-फ़िराक़
कौन आ कर हमें बहलाएगा

हम उसे याद बहुत आएँगे
जब उसे भी कोई ठुकराएगा

काएनात उस की मिरी ज़ात में है
मुझ को खो कर वो किसे पाएगा

न रहे जब वो भले दिन भी 'क़तील'
ये ज़माना भी गुज़र जाएगा

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