मरहला रात का जब आएगा
(कवि : क़तील शिफ़ाई)
मरहला रात का जब आएगा
जिस्म साए को तरस जाएगा
चल पड़ी रस्म जो कज-फ़हमी की
बात क्या फिर कोई कर पाएगा
सच से कतराए अगर लोग यहाँ
लफ़्ज़ मफ़्हूम से कतराएगा
ए'तिबार उस का हमेशा करना
वो तो झूटी भी क़सम खाएगा
तू न होगी तो फिर ऐ शाम-ए-फ़िराक़
कौन आ कर हमें बहलाएगा
हम उसे याद बहुत आएँगे
जब उसे भी कोई ठुकराएगा
काएनात उस की मिरी ज़ात में है
मुझ को खो कर वो किसे पाएगा
न रहे जब वो भले दिन भी 'क़तील'
ये ज़माना भी गुज़र जाएगा
जिस्म साए को तरस जाएगा
चल पड़ी रस्म जो कज-फ़हमी की
बात क्या फिर कोई कर पाएगा
सच से कतराए अगर लोग यहाँ
लफ़्ज़ मफ़्हूम से कतराएगा
ए'तिबार उस का हमेशा करना
वो तो झूटी भी क़सम खाएगा
तू न होगी तो फिर ऐ शाम-ए-फ़िराक़
कौन आ कर हमें बहलाएगा
हम उसे याद बहुत आएँगे
जब उसे भी कोई ठुकराएगा
काएनात उस की मिरी ज़ात में है
मुझ को खो कर वो किसे पाएगा
न रहे जब वो भले दिन भी 'क़तील'
ये ज़माना भी गुज़र जाएगा
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वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी
मैं उस की क़ैद में हूँ क़ैद से रिहाई में भी
लहू की आग में जल-बुझ गए बदन तो खुला
रसाई में भी ख़सारा है ना-रसाई में भी
बदलते रहते हैं मौसम गुज़रता रहता है वक़्त
मगर ये दिल कि वहीं का वहीं जुदाई में भी
लिहाज़-ए-हुर्मत-ए-पैमाँ न पास-ए-हम-ख़्वाबी
अजब तरह के तसादुम थे आश्नाई में भी
मैं दस बरस से किसी ख़्वाब के अज़ाब में हूँ
वही अज़ाब दर आया है इस दहाई में भी
तसादुम-ए-दिल-ओ-दुनिया में दिल की हार के बा'द
हिजाब आने लगा है ग़ज़ल-सराई में भी
मैं जा रहा हूँ अब उस की तरफ़ उसी की तरफ़
जो मेरे साथ था मेरी शिकस्ता-पाई में भी
मैं उस की क़ैद में हूँ क़ैद से रिहाई में भी
लहू की आग में जल-बुझ गए बदन तो खुला
रसाई में भी ख़सारा है ना-रसाई में भी
बदलते रहते हैं मौसम गुज़रता रहता है वक़्त
मगर ये दिल कि वहीं का वहीं जुदाई में भी
लिहाज़-ए-हुर्मत-ए-पैमाँ न पास-ए-हम-ख़्वाबी
अजब तरह के तसादुम थे आश्नाई में भी
मैं दस बरस से किसी ख़्वाब के अज़ाब में हूँ
वही अज़ाब दर आया है इस दहाई में भी
तसादुम-ए-दिल-ओ-दुनिया में दिल की हार के बा'द
हिजाब आने लगा है ग़ज़ल-सराई में भी
मैं जा रहा हूँ अब उस की तरफ़ उसी की तरफ़
जो मेरे साथ था मेरी शिकस्ता-पाई में भी
बात मेरी कभी सुनी ही नहीं बात मेरी कभी सुनी ही नहीं
जानते वो बुरी भली ही नहीं
दिल-लगी उन की दिल-लगी ही नहीं
रंज भी है फ़क़त हँसी ही नहीं
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं
उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं
जान क्या दूँ कि जानता हूँ मैं
तुम ने ये चीज़ ले के दी ही नहीं
हम तो दुश्मन को दोस्त कर लेते
पर करें क्या तिरी ख़ुशी ही नहीं
हम तिरी आरज़ू पे जीते हैं
ये नहीं है तो ज़िंदगी ही नहीं
दिल-लगी दिल-लगी नहीं नासेह
तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं
'दाग़' क्यूँ तुम को बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं
जानते वो बुरी भली ही नहीं
दिल-लगी उन की दिल-लगी ही नहीं
रंज भी है फ़क़त हँसी ही नहीं
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं
उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं
जान क्या दूँ कि जानता हूँ मैं
तुम ने ये चीज़ ले के दी ही नहीं
हम तो दुश्मन को दोस्त कर लेते
पर करें क्या तिरी ख़ुशी ही नहीं
हम तिरी आरज़ू पे जीते हैं
ये नहीं है तो ज़िंदगी ही नहीं
दिल-लगी दिल-लगी नहीं नासेह
तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं
'दाग़' क्यूँ तुम को बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं
मरहला रात का जब आएगा मरहला रात का जब आएगा
जिस्म साए को तरस जाएगा
चल पड़ी रस्म जो कज-फ़हमी की
बात क्या फिर कोई कर पाएगा
सच से कतराए अगर लोग यहाँ
लफ़्ज़ मफ़्हूम से कतराएगा
ए'तिबार उस का हमेशा करना
वो तो झूटी भी क़सम खाएगा
तू न होगी तो फिर ऐ शाम-ए-फ़िराक़
कौन आ कर हमें बहलाएगा
हम उसे याद बहुत आएँगे
जब उसे भी कोई ठुकराएगा
काएनात उस की मिरी ज़ात में है
मुझ को खो कर वो किसे पाएगा
न रहे जब वो भले दिन भी 'क़तील'
ये ज़माना भी गुज़र जाएगा
जिस्म साए को तरस जाएगा
चल पड़ी रस्म जो कज-फ़हमी की
बात क्या फिर कोई कर पाएगा
सच से कतराए अगर लोग यहाँ
लफ़्ज़ मफ़्हूम से कतराएगा
ए'तिबार उस का हमेशा करना
वो तो झूटी भी क़सम खाएगा
तू न होगी तो फिर ऐ शाम-ए-फ़िराक़
कौन आ कर हमें बहलाएगा
हम उसे याद बहुत आएँगे
जब उसे भी कोई ठुकराएगा
काएनात उस की मिरी ज़ात में है
मुझ को खो कर वो किसे पाएगा
न रहे जब वो भले दिन भी 'क़तील'
ये ज़माना भी गुज़र जाएगा
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की
वर्ना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में
या तो टूट कर रोया या ग़ज़ल-सराई की
तज दिया था कल जिन को हम ने तेरी चाहत में
आज उन से मजबूरन ताज़ा आश्नाई की
हो चला था जब मुझ को इख़्तिलाफ़ अपने से
तू ने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हम-नवाई की
तर्क कर चुके क़ासिद कू-ए-ना-मुरादाँ को
कौन अब ख़बर लावे शहर-ए-आश्नाई की
तंज़ ओ ता'ना ओ तोहमत सब हुनर हैं नासेह के
आप से कोई पूछे हम ने क्या बुराई की
फिर क़फ़स में शोर उट्ठा क़ैदियों का और सय्याद
देखना उड़ा देगा फिर ख़बर रिहाई की
दुख हुआ जब उस दर पर कल 'फ़राज़' को देखा
लाख ऐब थे उस में ख़ू न थी गदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की
वर्ना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में
या तो टूट कर रोया या ग़ज़ल-सराई की
तज दिया था कल जिन को हम ने तेरी चाहत में
आज उन से मजबूरन ताज़ा आश्नाई की
हो चला था जब मुझ को इख़्तिलाफ़ अपने से
तू ने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हम-नवाई की
तर्क कर चुके क़ासिद कू-ए-ना-मुरादाँ को
कौन अब ख़बर लावे शहर-ए-आश्नाई की
तंज़ ओ ता'ना ओ तोहमत सब हुनर हैं नासेह के
आप से कोई पूछे हम ने क्या बुराई की
फिर क़फ़स में शोर उट्ठा क़ैदियों का और सय्याद
देखना उड़ा देगा फिर ख़बर रिहाई की
दुख हुआ जब उस दर पर कल 'फ़राज़' को देखा
लाख ऐब थे उस में ख़ू न थी गदाई की
तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे ही तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे ही
हमारी जान थी जाँ पर वबाल वैसे ही
चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का
सो आ गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही
हम आ गए हैं तह-ए-दाम तो नसीब अपना
वगरना उस ने तो फेंका था जाल वैसे ही
मैं रोकना ही नहीं चाहता था वार उस का
गिरी नहीं मिरे हाथों से ढाल वैसे ही
ज़माना हम से भला दुश्मनी तो क्या रखता
सो कर गया है हमें पाएमाल वैसे ही
मुझे भी शौक़ न था दास्ताँ सुनाने का
'फ़राज़' उस ने भी पूछा था हाल वैसे ही
हमारी जान थी जाँ पर वबाल वैसे ही
चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का
सो आ गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही
हम आ गए हैं तह-ए-दाम तो नसीब अपना
वगरना उस ने तो फेंका था जाल वैसे ही
मैं रोकना ही नहीं चाहता था वार उस का
गिरी नहीं मिरे हाथों से ढाल वैसे ही
ज़माना हम से भला दुश्मनी तो क्या रखता
सो कर गया है हमें पाएमाल वैसे ही
मुझे भी शौक़ न था दास्ताँ सुनाने का
'फ़राज़' उस ने भी पूछा था हाल वैसे ही
सर-ए-फ़िराक़ भी तर्क-ए-अना नहीं होती सर-ए-फ़िराक़ भी तर्क-ए-अना नहीं होती
कि टूट जाती है दीवार वा नहीं होती
मेरे अलावा उसे ख़ुद से भी मोहब्बत है
और ऐसा करने से वो बेवफ़ा नहीं होती
जब अपने लोग मिरे तब हमें समझ आया
कि मौत सारे दुखों की दवा नहीं होती
ज़ियादा सोचने से बचना चाहिए 'मोहन'
ख़याली ज़ख़्मों की कोई दवा नहीं होती
कि टूट जाती है दीवार वा नहीं होती
मेरे अलावा उसे ख़ुद से भी मोहब्बत है
और ऐसा करने से वो बेवफ़ा नहीं होती
जब अपने लोग मिरे तब हमें समझ आया
कि मौत सारे दुखों की दवा नहीं होती
ज़ियादा सोचने से बचना चाहिए 'मोहन'
ख़याली ज़ख़्मों की कोई दवा नहीं होती