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मौत भी मेरी दस्तरस में नहीं

(कवि : ए जी जोश)
मौत भी मेरी दस्तरस में नहीं
और जीना भी अपने बस में नहीं

आग भड़के तो किस तरह भड़के
इक शरर भी तो ख़ार-ओ-ख़स में नहीं

क़त्ल-ओ-ग़ारत खुली फ़ज़ा का नसीब
ऐसा ख़तरा कोई क़फ़स में नहीं

क्या सुने कोई दास्तान-ए-वफ़ा
फ़र्क़ अब इश्क़ और हवस में नहीं

ज़ुल्म के सामने हो सीना-सिपर
हौसला इतना हम-नफ़स में नहीं

'जोश' वो जो कहें करो तस्लीम
फ़ाएदा कुछ भी पेश-ओ-पस में नहीं

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