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मुमकिन है शब-ए-हिज्र दुआ का न असर हो

(कवि : ए जी जोश)
मुमकिन है शब-ए-हिज्र दुआ का न असर हो
है रात वो क्या रात कि जिस की न सहर हो

ठुकरा के चले जाना है बर-हक़ तुम्हें लेकिन
बस रखना ख़याल इतना जहाँ को न ख़बर हो

वो शब जो सितारों से भरी हो तो हमें क्या
पहलू में अगर तेरे मिरी शब न बसर हो

गरजा है बड़े ज़ोर से बादल ज़रा देखो
बिजली से गिरी जिस पे कहीं मेरा न घर हो

जीवन है सफ़र 'जोश' ये तस्लीम है लेकिन
महबूब का हो साथ तो क्या ख़ूब सफ़र हो

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