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पी पी के जगमगाए ज़माने गुज़र गए

(कवि : ख़ुमार बाराबंकवी)
पी पी के जगमगाए ज़माने गुज़र गए
रातों को दिन बनाए ज़माने गुज़र गए

जान-ए-बहार फूल नहीं आदमी हूँ मैं
आ जा कि मुस्कुराए ज़माने गुज़र गए

क्या लाइक़-ए-सितम भी नहीं अब मैं दोस्तो
पत्थर भी घर में आए ज़माने गुज़र गए

ओ जाने वाले आ कि तिरे इंतिज़ार में
रस्ते को घर बनाए ज़माने गुज़र गए

ग़म है न अब ख़ुशी है न उम्मीद है न यास
सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए

मरने से वो डरें जो ब-क़ैद-ए-हयात हैं
मुझ को तो मौत आए ज़माने गुज़र गए

क्या क्या तवक़्क़ुआत थीं आहों से ऐ 'ख़ुमार'
ये तीर भी चलाए ज़माने गुज़र गए

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