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रात आई है बलाओं से रिहाई देगी

(कवि : अनवर मसूद)
रात आई है बलाओं से रिहाई देगी
अब न दीवार न ज़ंजीर दिखाई देगी

वक़्त गुज़रा है प मौसम नहीं बदला यारो
ऐसी गर्दिश है ज़मीं ख़ुद भी दुहाई देगी

ये धुँदलका सा जो है इस को ग़नीमत जानो
देखना फिर कोई सूरत न सुझाई देगी

दिल जो टूटेगा तो इक तरफ़ा चराग़ाँ होगा
कितने आईनों में वो शक्ल दिखाई देगी

साथ के घर में तिरा शोर बपा है 'अनवर'
कोई आएगा तो दस्तक न सुनाई देगी

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