रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
(कवि : अहमद फ़राज़)
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं
इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं
पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं
बेबसी भी कभी क़ुर्बत का सबब बनती है
रो न पाएँ तो गले यार से लग जाते हैं
कतरनें ग़म की जो गलियों में उड़ी फिरती हैं
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते हैं
दाग़ दामन के हों दिल के हों कि चेहरे के 'फ़राज़'
कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं
इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं
पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं
बेबसी भी कभी क़ुर्बत का सबब बनती है
रो न पाएँ तो गले यार से लग जाते हैं
कतरनें ग़म की जो गलियों में उड़ी फिरती हैं
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते हैं
दाग़ दामन के हों दिल के हों कि चेहरे के 'फ़राज़'
कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं
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मौत भी मेरी दस्तरस में नहीं मौत भी मेरी दस्तरस में नहीं
और जीना भी अपने बस में नहीं
आग भड़के तो किस तरह भड़के
इक शरर भी तो ख़ार-ओ-ख़स में नहीं
क़त्ल-ओ-ग़ारत खुली फ़ज़ा का नसीब
ऐसा ख़तरा कोई क़फ़स में नहीं
क्या सुने कोई दास्तान-ए-वफ़ा
फ़र्क़ अब इश्क़ और हवस में नहीं
ज़ुल्म के सामने हो सीना-सिपर
हौसला इतना हम-नफ़स में नहीं
'जोश' वो जो कहें करो तस्लीम
फ़ाएदा कुछ भी पेश-ओ-पस में नहीं
और जीना भी अपने बस में नहीं
आग भड़के तो किस तरह भड़के
इक शरर भी तो ख़ार-ओ-ख़स में नहीं
क़त्ल-ओ-ग़ारत खुली फ़ज़ा का नसीब
ऐसा ख़तरा कोई क़फ़स में नहीं
क्या सुने कोई दास्तान-ए-वफ़ा
फ़र्क़ अब इश्क़ और हवस में नहीं
ज़ुल्म के सामने हो सीना-सिपर
हौसला इतना हम-नफ़स में नहीं
'जोश' वो जो कहें करो तस्लीम
फ़ाएदा कुछ भी पेश-ओ-पस में नहीं
कोई शिकवा तो ज़ेर-ए-लब होगा कोई शिकवा तो ज़ेर-ए-लब होगा
कुछ ख़मोशी का भी सबब होगा
मैं भी हूँ बज़्म में रक़ीब भी है
आख़िरी फ़ैसला तो अब होगा
आएँ मय-ख़ाने में कभी वाइ'ज़
हूर भी होगी और सब होगा
बोल ऐ मेरे दिल की तारीकी
तेरा सूरज तुलूअ' कब होगा
सुनता होगा सदाएँ उस दिल की
शाम-ए-तन्हाई में वो जब होगा
कब छटेंगी ये बदलियाँ ग़म की
साफ़ मतला ये 'जोश' कब होगा
कुछ ख़मोशी का भी सबब होगा
मैं भी हूँ बज़्म में रक़ीब भी है
आख़िरी फ़ैसला तो अब होगा
आएँ मय-ख़ाने में कभी वाइ'ज़
हूर भी होगी और सब होगा
बोल ऐ मेरे दिल की तारीकी
तेरा सूरज तुलूअ' कब होगा
सुनता होगा सदाएँ उस दिल की
शाम-ए-तन्हाई में वो जब होगा
कब छटेंगी ये बदलियाँ ग़म की
साफ़ मतला ये 'जोश' कब होगा
मुमकिन है शब-ए-हिज्र दुआ का न असर हो मुमकिन है शब-ए-हिज्र दुआ का न असर हो
है रात वो क्या रात कि जिस की न सहर हो
ठुकरा के चले जाना है बर-हक़ तुम्हें लेकिन
बस रखना ख़याल इतना जहाँ को न ख़बर हो
वो शब जो सितारों से भरी हो तो हमें क्या
पहलू में अगर तेरे मिरी शब न बसर हो
गरजा है बड़े ज़ोर से बादल ज़रा देखो
बिजली से गिरी जिस पे कहीं मेरा न घर हो
जीवन है सफ़र 'जोश' ये तस्लीम है लेकिन
महबूब का हो साथ तो क्या ख़ूब सफ़र हो
है रात वो क्या रात कि जिस की न सहर हो
ठुकरा के चले जाना है बर-हक़ तुम्हें लेकिन
बस रखना ख़याल इतना जहाँ को न ख़बर हो
वो शब जो सितारों से भरी हो तो हमें क्या
पहलू में अगर तेरे मिरी शब न बसर हो
गरजा है बड़े ज़ोर से बादल ज़रा देखो
बिजली से गिरी जिस पे कहीं मेरा न घर हो
जीवन है सफ़र 'जोश' ये तस्लीम है लेकिन
महबूब का हो साथ तो क्या ख़ूब सफ़र हो