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साक़ी है न मय है न दफ़-ओ-चंग है होली

(कवि : हातिम अली मेहर)
साक़ी है न मय है न दफ़-ओ-चंग है होली
क्या हाल है इमसाल ये क्या रंग है होली

आई है जो फ़ुर्क़त में मिरा ख़ून करेगी
ये भी तिरे आने का कोई ढंग है होली

हम ख़ाक उड़ाते हैं धोलेंडी है यहाँ पर
हम तक नहीं आती कभी क्या लंग है होली

सौ बार जलाता हूँ मैं इक आह से दम में
आ कर मिरे वीराने में क्या तंग है होली

निकला मह-ए-नख़शब कि गिरा चाह में यूसुफ़
या हौज़ के अंदर मह-ए-गुल-रंग है होली

पिचकारी अगर ख़ामा है तो रंग सियाही
रंगीनी-ए-मज़मूँ से मिरे दंग है होली

हर बुत एवज़-ए-क़ुमक़ुमा दिल माँग रहा है
इस साल की वल्लाह कि बे-रंग है होली

ऐ 'मेहर' तिरे गिर्द हैं मह-रू किए तस्वीर
फ़ानूस-ए-ख़याली है कि अर्ज़ंग है होली

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