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सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं

(कवि : बशीर बद्र)
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
माँगा ख़ुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं

सोचा तुझे देखा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हम ने लिखा कुछ भी नहीं

इक शाम के साए तले बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं

एहसास की ख़ुशबू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं

दो-चार दिन की बात है दिल ख़ाक में मिल जाएगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाक़ी बचा कुछ भी नहीं

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मैं जो रोता हूँ तो कहते हो कि ऐसा न करो मैं जो रोता हूँ तो कहते हो कि ऐसा न करो
तुम अगर मेरी जगह हो तो भला क्या न करो
अब तो ऐ दिल हवस-ए-साग़र-ओ-मीना न करो
छोड़ भी दो ये तक़ाज़ा ये तक़ाज़ा न करो
दिल पे ऐ दोस्त क़यामत सी गुज़र जाती है
तुम निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ से देखा न करो
फिर भी आँखें उन्हें हर बात बता देती हैं
दिल तो कहता है किसी बात का चर्चा न करो
अब मिरा दर्द मिरी जान हुआ जाता है
ऐ मिरे चारागरो अब मुझे अच्छा न करो
ये सर-ए-बज़्म मिरी सम्त इशारे कैसे
मैं तमाशा तो नहीं मेरा तमाशा न करो
मिल ही जाती है कभी यास में तस्कीन मुझे
ऐ उमीदो मुझे ऐसे में तो छेड़ा न करो
उस ने 'शहज़ाद' तिरी बात को ठुकरा ही दिया
मैं न कहता था कि इज़हार-ए-तमन्ना न करो