सुख़न-ए-हक़ को फ़ज़ीलत नहीं मिलने वाली
(कवि : इफ़्तिख़ार आरिफ़)
सुख़न-ए-हक़ को फ़ज़ीलत नहीं मिलने वाली
सब्र पर दाद-ए-शुजाअत नहीं मिलने वाली
वक़्त-ए-मालूम की दहशत से लरज़ता हुआ दिल
डूबा जाता है कि मोहलत नहीं मिलने वाली
ज़िंदगी नज़्र गुज़ारी तो मिली चादर-ए-ख़ाक
इस से कम पर तो ये नेमत नहीं मिलने वाली
रास आने लगी दुनिया तो कहा दिल ने कि जा
अब तुझे दर्द की दौलत नहीं मिलने वाली
हवस-ए-लुक़्मा-ए-तर खा गई लहजे का जलाल
अब किसी हर्फ़ को हुरमत नहीं मिलने वाली
घर से निकले हुए बेटों का मुक़द्दर मालूम
माँ के क़दमों में भी जन्नत नहीं मिलने वाली
ज़िंदगी भर की कमाई यही मिसरे दो-चार
इस कमाई पे तो इज़्ज़त नहीं मिलने वाली