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वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी

(कवि : इफ़्तिख़ार आरिफ़)
वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी
मैं उस की क़ैद में हूँ क़ैद से रिहाई में भी

लहू की आग में जल-बुझ गए बदन तो खुला
रसाई में भी ख़सारा है ना-रसाई में भी

बदलते रहते हैं मौसम गुज़रता रहता है वक़्त
मगर ये दिल कि वहीं का वहीं जुदाई में भी

लिहाज़-ए-हुर्मत-ए-पैमाँ न पास-ए-हम-ख़्वाबी
अजब तरह के तसादुम थे आश्नाई में भी

मैं दस बरस से किसी ख़्वाब के अज़ाब में हूँ
वही अज़ाब दर आया है इस दहाई में भी

तसादुम-ए-दिल-ओ-दुनिया में दिल की हार के बा'द
हिजाब आने लगा है ग़ज़ल-सराई में भी

मैं जा रहा हूँ अब उस की तरफ़ उसी की तरफ़
जो मेरे साथ था मेरी शिकस्ता-पाई में भी

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नवीनतम बेवफा हिंदी शायरी
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की
वर्ना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में
या तो टूट कर रोया या ग़ज़ल-सराई की
तज दिया था कल जिन को हम ने तेरी चाहत में
आज उन से मजबूरन ताज़ा आश्नाई की
हो चला था जब मुझ को इख़्तिलाफ़ अपने से
तू ने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हम-नवाई की
तर्क कर चुके क़ासिद कू-ए-ना-मुरादाँ को
कौन अब ख़बर लावे शहर-ए-आश्नाई की
तंज़ ओ ता'ना ओ तोहमत सब हुनर हैं नासेह के
आप से कोई पूछे हम ने क्या बुराई की
फिर क़फ़स में शोर उट्ठा क़ैदियों का और सय्याद
देखना उड़ा देगा फिर ख़बर रिहाई की
दुख हुआ जब उस दर पर कल 'फ़राज़' को देखा
लाख ऐब थे उस में ख़ू न थी गदाई की