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ये पैहम तल्ख़-कामी सी रही क्या

(कवि : )
ये पैहम तल्ख़-कामी सी रही क्या
मोहब्बत ज़हर खा के आई थी क्या

मुझे अब तुम से डर लगने लगा है
तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या

शिकस्त-ए-ए'तिमाद-ए-ज़ात के वक़्त
क़यामत आ रही थी आ गई क्या

मुझे शिकवा नहीं बस पूछना है
ये तुम हँसती हो अपनी ही हँसी क्या

हमें शिकवा नहीं इक दूसरे से
मनाना चाहिए उस पर ख़ुशी क्या

पड़े हैं एक गोश में गुमाँ के
भला हम क्या हमारी ज़िंदगी क्या

मैं रुख़्सत हो रहा हूँ पर तुम्हारी
उदासी हो गई है मुल्तवी क्या

मैं अब हर शख़्स से उक्ता चुका हूँ
फ़क़त कुछ दोस्त हैं और दोस्त भी क्या

मोहब्बत में हमें पास-ए-अना था
बदन की इश्तिहा सादिक़ न थी क्या

नहीं रिश्ता समूचा ज़िंदगी से
न जाने हम में है अपनी कमी क्या

अभी होने की बातें हैं सो कर लो
अभी तो कुछ नहीं होना अभी क्या

यही पूछा किया मैं आज दिन-भर
हर इक इंसान को रोटी मिली क्या

ये रब्त-ए-बे-शिकायत और ये मैं
जो शय सीने में थी वो बुझ गई क्या
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