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इक ज़रा तुम से शनासाई हुई

(कवि : ए जी जोश)
इक ज़रा तुम से शनासाई हुई
शहर-भर में मेरी रुस्वाई हुई

हुस्न को कोई भी दे पाया न मात
जब हुई आशिक़ की पस्पाई हुई

देखने को कुछ नहीं था गर यहाँ
चश्म-ए-बीना क्यूँ तमाशाई हुई

उस ने पूछा मेरे आने का सबब
मैं ने ये जाना पज़ीराई हुई

इल्तिजा दोहरा रहा हूँ फिर वो 'जोश'
जो है लाखों बार दोहराई हुई

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