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सूना सूना दिल का मुझे नगर लगता है

(कवि : ए जी जोश)
सूना सूना दिल का मुझे नगर लगता है
अपने साए से भी आज तो डर लगता है

बाँट रहा है दामन दामन मेरी चाहत
अपना दिल भी किसी सख़ी का दर लगता है

महरूमी ने जहाँ बसेरा ढूँड लिया है
मुझ को तो वो घर भी अपना घर लगता है

मेरी बर्बादी में हिस्सा है अपनों का
मुमकिन है ये बात ग़लत हो पर लगता है

'जोश' हूँ मैं दीवाने-पन की उस मंज़िल में
जहाँ रक़ीब भी अपना नामा-बर लगता है

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अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को
मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को
मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी
ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को
मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता-ज़न भी
कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को
तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुद-परस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझ को
बाँध कर संग-ए-वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब
कौन ऐसा है जो अब ढूँढ निकाले मुझ को
ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन
कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को
मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे-पाँव कभी आ के चुरा ले मुझ को
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को
बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील'
शर्त ये है कोई बाँहों में सँभाले मुझ को
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किस का तसव्वुर है ये किस का फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है
दिल संग-ए-मलामत का हर-चंद निशाना है
दिल फिर भी मिरा दिल है दिल ही तो ज़माना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
शाइ'र हूँ मैं शाइ'र हूँ मेरा ही ज़माना है
फ़ितरत मिरा आईना क़ुदरत मिरा शाना है
जो उन पे गुज़रती है किस ने उसे जाना है
अपनी ही मुसीबत है अपना ही फ़साना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
आग़ाज़-ए-मोहब्बत है आना है न जाना है
अश्कों की हुकूमत है आहों का ज़माना है
आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है
हम दर्द-ब-दिल नालाँ वो दस्त-ब-दिल हैराँ
ऐ इश्क़ तो क्या ज़ालिम तेरा ही ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हम से या हम हैं ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है
ऐ इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर को हँस हँस के रुलाना है
थोड़ी सी इजाज़त भी ऐ बज़्म-गह-ए-हस्ती
आ निकले हैं दम-भर को रोना है रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
ख़ुद हुस्न-ओ-शबाब उन का क्या कम है रक़ीब अपना
जब देखिए अब वो हैं आईना है शाना है
तस्वीर के दो रुख़ हैं जाँ और ग़म-ए-जानाँ
इक नक़्श छुपाना है इक नक़्श दिखाना है
ये हुस्न-ओ-जमाल उन का ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
मुझ को इसी धुन में है हर लहज़ा बसर करना
अब आए वो अब आए लाज़िम उन्हें आना है
ख़ुद्दारी-ओ-महरूमी महरूमी-ओ-ख़ुद्दारी
अब दिल को ख़ुदा रक्खे अब दिल का ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में
मा'सूम मोहब्बत का मा'सूम फ़साना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन
बंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है