ज़ख़्म खाते हैं और मुस्कुराते हैं हम
(कवि : ए जी जोश)
ज़ख़्म खाते हैं और मुस्कुराते हैं हम
हौसला अपना ख़ुद आज़माते हैं हम
आ लगा है किनारे सफ़ीना मगर
शोर तो आदतन ही मचाते हैं हम
हम जो डूबें तो कोई न फिर बच सके
ऐसा सागर में तूफ़ाँ उठाते हैं हम
चूर कर भी चुके दिल के शीशे को वो
अपनी हिम्मत है फिर चोट खाते हैं हम
बे-रुख़ी से जो दिल तोड़ देते हैं 'जोश'
उन के ही प्यार के गीत गाते हैं हम